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Tuesday, May 23, 2017

संगीत : परिभाषा

१. गीतं वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगीतमुच्यते।
   अर्थात गाना बजाना और नृत्त या नृत्य इन तीनों को संगीत कहा जाता है. गीत में सम उपसर्ग लगाने से संगीत        बनता है जिसका अर्थ है सम्यक गीत. इस प्रकार संगीत में गीत, वाद्य एवं नृत्त तीनों का समावेश है.
संगीत के इन तीनों अंगों में से गीत को हीं प्रमुख मन गया है एवं इसकी प्रधानता के लिए कहा गया है - 

"नृत्यं वाद्यानुगम प्रोक्तं गीतानुवर्ती च।"

अर्थात नृत्य वाद्य का अनुगामी होता है क्योंकि नृत्य को मृदंग, तबले या अन्य ताल वाद्यों का सहारा लेना होता है, जबकि वाद्य गीत का अनुवर्ती होता है क्योंकि गाते-बजाते समय वाद्य गान का अनुसरण किया करते हैं. इस बात को इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि बजाने वाला व्यक्ति जिन स्वर समूहों को बजाता है, उन स्वर समूहों का मन हीं मन गुनगुनाता है या उन स्वरों की मन में कल्पना करता है, अतः ये कह सकते हैं की वाद्य का आदर्श या आधार गान हीं होता है.

२.  स्वर और लय की कला को संगीत कहते हैं। 
३. संगीत वह ललित कला है, जिसमें स्वर और लय के द्वारा हम अपने भावों को प्रकट करते हैं।

सुव्यवस्थित ध्वनि, जो रस की सृष्टि करे, संगीत कहलाती है। गायनवादन व नृत्य ये तीनों ही संगीत हैं। संगीत नाम इन तीनों के एक साथ व्यवहार से पड़ा है। गाना, बजाना और नाचना प्रायः इतने पुराने है जितना पुराना आदमी है। बजाने और बाजे की कला आदमी ने कुछ बाद में खोजी-सीखी हो, पर गाने और नाचने का आरंभ तो न केवल हज़ारों बल्कि लाखों वर्ष पहले उसने कर लिया होगा, इसमें संदेह नहीं।
गान मानव के लिए प्राय: उतना ही स्वाभाविक है जितना भाषण। कब से मनुष्य ने गाना प्रारंभ किया, यह बतलाना उतना ही कठिन है जितना कि कब से उसने बोलना प्रारंभ किया। परंतु बहुत काल बीत जाने के बाद उसके गान ने व्यवस्थित रूप धारण किया। जब स्वर और लय व्यवस्थित रूप धारण करते हैं तब एक कला का प्रादुर्भाव होता है और इस कला को संगीत, म्यूजिक या मौसीकी कहते हैं।
वाद्य में जहाँ गीत नहीं होता था, केवल दाड़ा, दिड़दिड़ जैसे शुष्क अक्षर होते थे, वहाँ उसे 'निर्गीत' या 'बहिर्गीत' कहते थे और नृत्त अथवा नृत्य की एक अलग कला थी। किंतु धीरे-धीरे गान, वाद्य और नृत्य तीनों का "संगीत" में अंतर्भाव हो गया।
उत्पत्ति

उन्नीसवीं शदी के उत्तरार्द्ध में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने कहा कि ‘‘संगीत की उत्पत्ति मानवीय संवेदना के साथ हुई।’’ उन्होंने संगीत को गाने, बजाने, बताने (केवल नृत्य मुद्राओं द्वारा) और नाचने का समुच्चय बताया।
संगीत' शब्द ‘सम्+ग्र’ धातु से बना है। अन्य भाषाओं में ‘सं’ का ‘सिं’ हो गया है और ‘गै’ या ‘गा’ धातु (जिसका भी अर्थ गाना होता है) किसी न किसी रूप में इसी अर्थ में अन्य भाषाओं में भी वर्तमान है। ऐंग्लोसैक्सन में इसका रूपान्तर है ‘सिंगन’ (singan) जो आधुनिक अंग्रेजी में ‘सिंग’ हो गया है, आइसलैंड की भाषा में इसका रूप है ‘सिग’ (singja), (केवल वर्ण विन्यास में अन्तर आ गया है,) डैनिश भाषा में है ‘सिंग (Synge), डच में है ‘त्सिंगन’ (tsingen), जर्मन में है ‘सिंगेन’ (singen)। अरबी में ‘गना’ शब्द है जो ‘गान’ से पूर्णतः मिलता है। सर्वप्रथम ‘संगीतरत्नाकर’ ग्रन्थ में गायन, वादन और नृत्य के मेल को ही ‘संगीत’ कहा गया है। वस्तुतः ‘गीत’ शब्द में ‘सम्’ जोड़कर ‘संगीत’ शब्द बना, जिसका अर्थ है ‘गान सहित’। नृत्य और वादन के साथ किया गया गान ‘संगीत’ है। शास्त्रों में संगीत को साधना भी माना गया है।
प्रामाणिक तौर पर देखें तो सबसे प्राचीन सभ्यताओं के अवशेष, मूर्तियों, मुद्राओं व भित्तिचित्रों से जाहिर होता है कि हजारों वर्ष पूर्व लोग संगीत से परिचित थे। देव-देवी को संगीत का आदि प्रेरक सिर्फ हमारे ही देश में नहीं माना जाता, यूरोप में भी यह विश्वास रहा है। यूरोप, अरब और फारस में जो संगीत के लिए शब्द हैं उस पर ध्यान देने से इसका रहस्य प्रकट होता है। संगीत के लिए यूनानी भाषा में शब्द ‘मौसिकी’ (musique), लैटिन में ‘मुसिका’ (musica), फ्रांसीसी में ‘मुसीक’ (musique), पोर्तुगी में ‘मुसिका’ (musica), जर्मन में मूसिक’ (musik), अंग्रेजी में ‘म्यूजिक’ (music), इब्रानी, अरबी और फारसी में ‘मोसीकी’। इन सब शब्दों में साम्य है। ये सभी शब्द यूनानी भाषा के ‘म्यूज’(muse) शब्द से बने हैं। ‘म्यूज’ यूनानी परम्परा में काव्य और संगीत की देवी मानी गयी है। कोश में ‘म्यूज’ (muse) शब्द का अर्थ दिया है ‘दि इन्सपायरिंग गॉडेस ऑफ साँग’ अर्थात् ‘गान की प्रेरिका देवी’। यूनान की परम्परा में ‘म्यूज’ ‘ज्यौस’(zeus) की कन्या मानी गयी हैं। ज्यौस’ शब्द संस्कृत के ‘द्यौस्’ का ही रूपान्तर है जिसका अर्थ है ‘स्वर्ग’। ‘ज्यौस’ और ‘म्यूज’ की धारण ब्रह्मा और सरस्वती से बिलकुल मिलती-जुलती है।

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