तृतीय वर्ष (तन्त्र वाद्य)
क्रियात्मक परीक्षा १०० अंकों की तथा शास्त्र का एक प्रश्न-पत्र ५० अंकों का. पिछले वर्षों का सम्पूर्ण पाठ्यक्रम भी सम्मिलित है.
क्रियात्मक
- प्रथम और द्वितीय वर्षों की पाठ्यक्रम की विशेष जानकारी और तैयारी.
- स्वर-ज्ञान में विशेष उन्नति.
- अन्य कठिन अलंकारों और तानों को विभिन्न लयकारियों (ठाह, दून, तिगुन, और चौगुन) में विभिन्न बोलों में और तीनों सप्तकों में पूर्ण अभ्यास. आड़-लय का केवल प्रारंभिक ज्ञान.
- वाद्य मिलाने का प्रारंभिक अभ्यास.
- मींड, सूत, घसीट, जमजमा, खटका, मुर्की, स्पर्श, स्वर आदि निकालने का आरंभिक अभ्यास. प्रथम और द्वितीय वर्ष के रागों के स्वर-विस्तार में इन सब चीजों का साधारण प्रयोग.
- बागेश्री, मालकोस, जौनपुरी, तथा पूर्वी, रागों का साधारण आलाप, जोड़, और एक-एक विलंबित गत मसितखानी अथवा बड़ा-ख्याल (ख्याल-अंग बजाने वालों के लिए) दून और चौगुन लयों में सुन्दर तान, तोड़ों, सहित. हाथ की सफाई और तैयारी पर विशेष ध्यान रखना चाहिए.
- पूर्वी, तोड़ी, मुल्तानी, दुर्गा, कलिंङ्गड़ा, तिलङ, पीलू, तिलक कामोद, और सोहिनी रागों का पूर्ण-ज्ञान, स्वर विस्तार (साधारण और मींड-सूत द्वारा) और प्रत्येक में एक-एक रजाखानी-गत अथवा छोटा-ख्याल सुन्दर तान, तोड़ों और झाला सहित.
- दीपचंदी, धमार, झुमरा तथा तिलवाड़ा तालों के ठेकों को ठाह, दुगुन, तिगुन और चौगुन लयों में बोलना.
- राग पहचान में निपुणता.
शास्त्र
- प्रथम और द्वितीय वर्षों के कुल पारिभाषिक शब्दों का विस्तृत ज्ञान, २२ श्रुतियों का सात शुद्ध स्वरों में विभाजन (आधुनिक मत), आन्दोलन की चौड़ाई और उसका नाद से छोटे-बड़ेपन से सम्बन्ध, थाट और राग के विशेष नियम. श्रुति और नाद में सूक्ष्म भेद. व्यंकटमखी के ७२ मेलों की गणितानुसार रचना और एक थाट से ४८४ रागों की उत्पत्ति. स्वर और समय के अनुसार रागों के तीन वर्ग (रे-ध कोमल वाले राग, रे-ध शुद्ध वाले राग, और ग-नि कोमल वाले राग), संधिप्रकाश राग, तानों के प्रकार.
- वाद्य सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दों एवं विषयों का पूर्ण ज्ञान, तरब, जोड़, अनुलोम तथा विलोम, मींड, गमक, सूत, घसीट, मुर्की, गिटकिरी, खटका, तंत्र, तन्त्रकारों के गुण-दोष, कस्बी तथा अताई.
- रागों का पूर्ण परिचय एवं तुलनात्मक अध्ययन स्वर-विस्तार सहित.
- आलाप, गत, तान तोड़ा, झाला आदि को स्वरलिपि में लिखने का पूर्ण अभ्यास.
- इस वर्ष तथा पिछले वर्षों के तालों का पूर्ण ज्ञान. उनके ठेकों को दुगुन, तिगुन और चौगुन लयों में ताल-लिपि में लिखना. किसी ताल अथवा गत या गीत को दुगुन आदि आरंभ करने के स्थान को भिन्न-भिन्न स्थानों द्वारा निकालने की रीति.
- कठिन स्वर-समूहों द्वारा राग पहिचान.
- भातखंडे तथा विष्णु दिगंबर स्वर-लिपि पद्धतियों का पूर्ण-ज्ञान.
- शारङदेव तथा स्वामी हरिदास को संक्षिप्त जीवनियां तथा उनके संगीत कार्यों का परिचय.
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