वक्र-स्वर
आरोह अथवा अवरोह करने के समय जब किसी स्वर तक जाकर पुनः लौटकर उसके पीछे के स्वर पर आते हैं और फिर उसको छोड़कर आगे बढ़ते हैं तब जिस स्वर से लौटते हैं, उसी स्वर को वक्र स्वर कहते हैं।
जैसे : सा रे ग रे म
यहाँ गांधार वक्र हैं।
गाने या बजाने में जो सरगम नियमित रूप से ताल में गाये-बजाये जाते हैं, उन्हीं तानों और सरगमों को सितार पर दिरदादिर दारा आदि बोल के सहारे बजाने से तोड़े बनते हैं। तान दो तरह के होते हैं- शुद्ध तान और कूट तान।
झाला
सितार में चिकारी के तार पर कनिष्टिका या तर्जनी "रा रा" बजने को झाला कहते हैं। इसके कुछ अलग बोल हैं। यह ठीक भ्रमर के गुंजन के सामान मीठा और अच्छा मालूम होता है और नृत्य का आनंद मिलता है।
गत
बोलो की बंदिश जो स्वर और ताल में बंधी हो, उसे गत कहते हैं। इन बोलों के कुछ भी मायने नहीं होते परन्तु हस्त चालन द्वारा निर्देशित स्वर और ताल के मिश्रण को सुनने में आनंद आता है।
सितार पर स्वरों के सहारे और ताल में बंधी हुई दा दिर दा रा, दिरदादिरदारा आदि बोलों की बंदिश जो राग और ताल पर बंधी होती है, उसे गत कहते हैं।