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Saturday, January 25, 2020

राग खमाज का परिचय

राग खमाज का परिचय
आरोह - सा ग म प नी सा
अवरोह - सां नी ध प म ग  सा
पकड़ - 
वादी - ग
संवादी - नी
जाति -षाडव-सम्पूर्ण
थाट - खमाज
गाने-बजाने का समय - रात्रि का दूसरा प्रहर

राग आसावरी का परिचय

वादी: ध॒
संवादी: ग॒
थाट: ASAWARI
आरोह: सारेमपध॒सां
अवरोह: सांनि॒ध॒पमग॒रेसा
पकड़: रेमपनि॒ध॒प
रागांग: उत्तरांग
जाति: AUDAV-SAMPURN
समय: दिन का प्रथम  प्रहर

राग भूपाली का परिचय

राग भूपाली का परिचय
वादी: 
संवादी: 
थाट: KALYAN
आरोह: सारेगपधसां
अवरोह: सांधपगरेसा
पकड़: गरेसाध़सारेगपगधपगरेगप़ध़सारेग
रागांग: पूर्वांग
जाति: AUDAV-AUDAV
समय: रात्रि  का प्रथम प्रहर


  1. हम तुमसे न कुछ कह पाये - जिद्दी
  2. ज्योति कलश छलके - भाभी की चुड़ियाँ
  3. कांची रे कांची रे - हरे रामा हरे कृष्णा
  4. पंछी बनूं उड़ती फिरूं - चोरी चोरी
  5. पंख होती तो उड़ आती रे - सेहरा

राग बिलावल का परिचय

वादी: 
संवादी: 
थाट: BILAWAL
आरोह: सारेगमपधनिसां
अवरोह: सांनिधपमगरेसा
पकड़: गरे गपधनिसां
रागांग: उत्तरांग
जाति: SAMPURN-SAMPURN
समय: दिन का प्रथम प्रहर
विशेष: आरोह में म का कम उपयोग होता है।


  1. कैसे 

राग काफी का परिचय

राग काफी का परिचय
वादी: 
संवादी: सा
थाट: KAFI
आरोह: सारेग॒मपधनि॒सां
अवरोह: सांनि॒धपमग॒रेसा
पकड़: नि॒पग॒रे
रागांग: पूर्वांग
जाति: SAMPURN-SAMPURN

गाने-बजाने का समय - मध्य रात्री


  1. कैसे कहूं मन की बात - धूल का फूल
  2. तुम्हारा प्यार चाहिये मुझे जीने के लिये - मनोकामना

Friday, January 24, 2020

राग अहीर भैरव का परिचय

वादी: 
संवादी: सा
थाट: BHAIRAV
आरोह: सारे॒गमपधनि॒सां
अवरोह: सांनि॒धपमगमरे॒सा
पकड़: गमधधप, मगरे॒साऩि॒सा
रागांग: पूर्वांग
जाति: SAMPURN-SAMPURN
समय: दिन का प्रथम प्रहर


  1. अलबेला सजन आयो रे - हम दिल दे चुके सनम
  2. पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई - मेरी सूरत तेरी आँखें
  3. सोलह बरस की बाली उमर को - एक दूजे के लिये

Thursday, January 16, 2020

पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर


घराना - ग्वालियर घराना
जन्म -०८ अगस्त  १८७२
मृत्यु - २१ अगस्त १९३१
रचनाएँ -
              संगीत बाल प्रकाश,
              बीस भागों में राग प्रवेश,
              संगीत शिक्षा,
              महिला संगीत आदि।
 ग्वालियर घराने के प्रसिद्ध संगीतज्ञ स्व० पंडित विष्णु दिगंबर  पलुस्कर का जन्म सन ०८ अगस्त  १८७२, श्रवण पूर्णिमा को कुरुंदवाड़ रियासत के बेलगाँव नामक स्थान में हुआ. उनके पिता का नाम  दिगंबर गोपाल और माता का नाम गंगा देवी था. पिता एक अच्छे कीर्तनकार थे. उनहोंने पंडित जी को एक अच्छे विद्यालय में भेजना प्रारम्भ किया  दुर्भाग्यवश दीपावली के दिन आतिशबाजी से  आँखें ख़राब हो गयीं.  जिसके कारण उन्हें अध्ययन बंद करना पड़ा. आँख के बिना कोई उचित व्यवसाय न मिलने के कारण उनके पिता ने उनको संगीत  सीखाना शुरू किया। उन्हें मिरज के पंडित बाल-कृष्ण बुआ इचलकरञ्जिकार के पास संगीत-शिक्षा ग्रहण करने के  लिए भेज दिया। वहां मिरज रियासत के तत्कालीन महाराजा ने उन्हें राजाश्रय दिया और  प्रत्येक प्रकार की व्यवस्था करा दी।
 एक दुखद घटना: एक बार मिरज में एक सार्वजानिक सभा आयोजित हुई और रियासत के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को निमंत्रित किया गया।  पंडित विष्णु दिगंबर जी को राजाश्रय प्राप्त होने के कारन आमंत्रित तो किया गया, किन्तु उनके गुरु जी को नहीं बुलाया गया. इसे देखकर पंडित जी बड़े आश्चर्य में पड़े और इसका कारण जानना चाहा. पूछने पर उन्हें आश्चर्यजनक उत्तर उत्तर मिला कि वे तो गवैये हैं. उन्हें क्या आमंत्रित किया किया जाये. अपने पूज्य गुरु और गवैयों के बारे में कहे गए वाक्य उनके हृदय  घर कर गए. पंडित जी ने उसी क्षण निर्णय लिया की वे संगीतज्ञों की दयनीय दशा सुधारने एवं संगीत के प्रचार एवं प्रसार करने के प्रयास में शेष जीवन समर्पित कर देंगे.

१८९६  में राजाश्रय के सभी सुखों को छोड़कर संगीत को उच्च स्थान दिलाने के लिए पंडित जी देश भ्रमण पर निकल पड़े।  सतारा में उनका भव्य स्वागत हुआ और उनका गायन कार्यक्रम बहुत अच्छा रहा।  जिससे वहां के लोगों में संगीत और संगीतज्ञों के प्रति श्रद्धा बढ़ी।  इसके बाद उनहोंने भारत के अनेक स्थानों का भ्रमण किया और हर जगह संगीत से श्रोताओं को मुग्ध कर दिया।  उनहोंने ग्वालियर, दिल्ली, बड़ौदा, भरतपुर, वाराणसी, आगरा, अलाहाबाद, जयपुर, लाहौर आदि स्थानों पर संगीत  छवि को सुधारने हेतु उल्लेखनीय कार्य किया।

संगीत का प्रचार और प्रसार करने के लिए पंडित जी ने यह अनुभव किया की सर्वप्रथम प्रचलित गीतों से श्रृंगार रस के भद्दे शब्दों को निकाल कर भक्ति रस  के सुन्दर शब्दों को रखा गया।  दूसरे, संगीत के  विद्यालय स्थापित किये, जहाँ बालक और बालिकाओं को संगीत शिक्षण की समुचित व्यवस्था की गयी. उनहोंने बहुत से गीत के शब्दों में परिवर्तन किये और ५ मई सन  १९०१ को लाहौर में प्रथम संगीत विद्यालय - गांधर्व  महाविद्यालय की स्थापना की। संस्था को भली-भांति चलने के लिए उन्हें कभी-कभी आर्थिक संकट का सामना  पड़ा।
जो कुछ भी वो धन प्राप्त करते, वे इस कार्य में लगा देते।  जब कोई विद्यार्थी नहीं आता था, तो वे स्वयं हीं  तानपुरा निकलकर अभ्यास करते।  कुछ दिनों के बाद विद्यार्थियों की संख्या में बढ़ोत्तरी होने लगी।  वे विद्यालय के कार्यों में इतने मशगूल रहते थे कि जब उन्हीं अपने पिता की मृत्यु का समाचार मिला, तब भी वे घर नहीं जा सके।

सन १९०८ में पंडित जी ने बम्बई में गन्धर्व महाविद्यालय की एक शाखा खोली।  वहां उन्हें लाहौर की तुलना में ज्यादा सफलता मिली।  विद्यार्थयों की संख्या भी काफी बढ़ी।  लगभग १५ वर्षों तक विद्यालय का कार्य सुचारु रूप से चलता रहा, किन्तु निजी भवन हेतु विद्यालय को काफी कर्ज लेना पड़ा।  काफी समय तक कर्ज चुकाया नहीं जा सका।  जिसके कारण भवन कर्ज में चला गया और विद्यालय बंद हो गया।  तब पंडित जी का ध्यान राम-नाम में राम गया, वे गेरुआ वस्त्र धारण करने लगे और 'रघुपति राघव राजा राम। ... ' का सहारा ले लिए।  हर समय इसी में मस्त रहने लगे।  कालांतर में नासिक जाकर वहां 'रामनाम आश्रम' की स्थापना की।

वैदिक काल में प्रचलित आश्रम प्रणाली के आधार पर पलुस्कर जी  १०० शिष्यों को शिक्षा दी।  उनके अधिकांश शिष्य  उनके साथ रहते, उनके खाने-पिने, रहने तथा शिक्षा का प्रबंध वे निःशुल्क करते।  उनके शिष्यों में स्व० वि० ए० कशालकर, स्व० पंडित ओमकार नाथ ठाकुर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

संगीत को लिपि बद्ध  करने के लिए कोई लिपि प्रचलित नहीं थी, अतः उनहोंने एक स्वरलिपि पद्धति की रचना की, जो विष्णु दिगंबर स्वरलिपि पद्धति के नाम से प्रसिद्ध है।  उनहोंने लगभग ५० पुस्तके लिखी जिनमे संगीत बाल प्रकाश, बीस भागों में राग प्रवेश, संगीत शिक्षा, महिला संगीत आदि।  जनता में शीघ्र संगीत प्रचार करने के लिए कुछ समय तक 'संगीतामृत प्रवाह' नमक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी किया।  सन १९३० में वे लकवाग्रस्त हो गए, किन्तु क्षमतानुसार संगीत की सेवा करते रहे।

अंत में २१ अगस्त १९३१ को उनहोंने प्राण त्याग दिए. उनके १२ पुत्रों में ११ पुत्रों का मृत्यु बाल्यावस्था में हिन् हो गई. केवल एक पुत्र दत्तात्रय विष्णु पलुस्कर अपने जीवन के ३५ वर्षों  तक संगीत की सेवा कर सके, क्योंकि उनका भी काम हीं  उम्र में सन १९५५ की विजयादशमी को देहांत हो गया।



Sunday, January 12, 2020

श्री विष्णु नारायण भातखण्डे-जीवनी


जन्म: १० अगस्त १८६०
मृत्यु: १९ सितम्बर १९३६
रचनाएँ:

  • हिंदुस्तानी संगीत पद्धति (क्रमिक पुस्तक मलिका ६ भागों में), 
  • भातखण्डे संगीत शास्त्र ४ भागों में, 
  • अभिनव राग मञ्जरी, 
  • लक्ष्य संगीत, 
  • स्वरमालिका आदि.


श्री विष्णु नारायण भातखण्डे जी का जन्म १० अगस्त १८६० को बम्बई के बालकेश्वर नामक स्थान में कृष्ण जन्माष्टमी के दिन हुआ था. उनके पिता को संगीत से विशेष प्रेम था. उन्हें अपने पिता से संगीत सिखने की प्रेरणा मिली. अतः वे विद्यालयी शिक्षा के साथ-साथ संगीत शिक्षा के प्रति जागरूक रहे. उन्होंने सेंटर, गायन और बांसुरी की भी शिक्षा प्राप्त की और तीनों पर अच्छा अभ्यास किया. सेठ बल्लव दस से सितार और गुरु राव जी बुआ वेलबाथ कर, जयपुर के मुहम्मद अली खान, ग्वालियर के पंडित एकनाथ, रामपुर के कल्बे अली खान आदि गुरुजनों से गायन सीखा. सन १८८३ में स्नातक एवं १८९० में एल एल बी  की परीक्षाएं उत्तीर्ण की.  कुछ समय तक इन्होने वकालत भी की, किन्तु संगीत प्रेमी मन वकालत में अधिक दिनों तक रम न सका. 

वकालत छोड़कर वे संगीत सेवा में लग गए. शास्त्रीय संगीत की ओर संगीतज्ञों का ध्यान आकर्षित करने का श्रेय पंडित जी को है. उनके समय के संगीतज्ञ संगीत शास्त्र पर बिलकुल ध्यान नहीं देते थे, अतः उनके गायन-वादन में अनेक विषमताएं मिलती थी. अतः उनहोंने विभिन्न भागों का भ्रमण किया और संगीत के प्राचीन ग्रंथों की खोज की. यात्रा में जहाँ भी उन्हें संगीत का विद्वान मिलते, वे उन सबसे सहर्ष मिलते. उनसे धन देकर या शिष्य बनकर, अथवा सेवा कर ज्ञान प्राप्त किया. इस कार्य में उन्हें कई बार दिक्क्तें भी उठानी पड़ी. विभिन्न रागों के बहुत से गीत एकत्रित किये और उनकी स्वरलिपि भातखण्डे क्रमिक पुस्तक ६ भागों में संगृहीत कर संगीत-प्रेमियों के लिए अथाह भंडार बना दिया. उस समय किसी व्यक्ति को केवल एक गीत सिखने के लिए वर्षों तक  सेवा करनी पड़ती थी. ऐसे वक्त में पुस्तकों की श्रृंखला का उपलब्ध हो जाना विद्यार्थियों की लिए लाभप्रद सिद्ध हुआ. 

किर्यात्मक संगीत को लिपिबद्ध करने  भातखण्डे जी ने एक सरल और नयी स्वरलिपि पद्धति की    पद्धति के नाम से प्रसिद्ध है. उत्तरी हिंदुस्तान में इस पद्धति का प्रचलित है. यह पद्धति अन्य की तुलना में सरल और सुबोध हैं. 

इसके अतिरिक्त राग वर्गीकरण का एक नविन प्रकार - थाट राग वर्गीकरण को प्रचारित करने का श्रेय भी इन्हीं को जाता हैं.  उन्होंने वैज्ञानिक ढंग से समस्त रागों को १० थाटों में विभाजित किया. उनके समय में राग-रागिनी पद्धति प्रचलित थी. उन्होंने उसकी कमियों को समझते हुए थाट का प्रचार किया तथा काफी के स्थान पर बिलावल को शुद्ध थाट माना. 

जिस  समय भारत में रेडियो का प्रचार नहीं था उस समय भातखण्डे जी ने संगीत के प्रचार हेतु संगीत-सम्मलेन की कल्पना की और सं १९१६ में बड़ौदा नरेश की सहायता से प्रथम संगीत सम्मलेन सफलता पूर्वक आयोजित किया. उस समय में अखिल भारतीय संगीत अकादमी स्थापित करने का प्रस्ताव सर्व सम्मति से पास हुआ. शीघ्र हिन् उसकी स्थापना हुई, किन्तु अधिक समय तक कार्य न कर सकी. सन १९२५ तक उन्होंने पांच बृहद संगीत सम्मलेन आयोजित किये. उनके प्रयत्नों से कई संगीत-विद्यालयों की स्थापना हुई. उनमे से मुख्या हैं - मैरिस म्यूजिक कॉलेज (भातखण्डे संगीत विद्यापीठ) लखनऊ, माधव संगीत विद्यालय ग्वालियर तथा म्यूजिक कॉलेज बड़ौदा. 

उनकी प्रमुख रचनाओं हैं- हिंदुस्तानी संगीत पद्धति (क्रमिक पुस्तक मलिका ६ भागों में), भातखण्डे संगीत शास्त्र ४ भागों में, अभिनव राग मञ्जरी, लक्ष्य संगीत, स्वरमालिका आदि.

इस प्रकार भातखण्डे जी जीवन भर संगीत की सेवा करते रहे और अंत में १९ सितम्बर १९३६ को उनका स्वर्गवास हो गया. 

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