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Sunday, January 12, 2020

श्री विष्णु नारायण भातखण्डे-जीवनी


जन्म: १० अगस्त १८६०
मृत्यु: १९ सितम्बर १९३६
रचनाएँ:

  • हिंदुस्तानी संगीत पद्धति (क्रमिक पुस्तक मलिका ६ भागों में), 
  • भातखण्डे संगीत शास्त्र ४ भागों में, 
  • अभिनव राग मञ्जरी, 
  • लक्ष्य संगीत, 
  • स्वरमालिका आदि.


श्री विष्णु नारायण भातखण्डे जी का जन्म १० अगस्त १८६० को बम्बई के बालकेश्वर नामक स्थान में कृष्ण जन्माष्टमी के दिन हुआ था. उनके पिता को संगीत से विशेष प्रेम था. उन्हें अपने पिता से संगीत सिखने की प्रेरणा मिली. अतः वे विद्यालयी शिक्षा के साथ-साथ संगीत शिक्षा के प्रति जागरूक रहे. उन्होंने सेंटर, गायन और बांसुरी की भी शिक्षा प्राप्त की और तीनों पर अच्छा अभ्यास किया. सेठ बल्लव दस से सितार और गुरु राव जी बुआ वेलबाथ कर, जयपुर के मुहम्मद अली खान, ग्वालियर के पंडित एकनाथ, रामपुर के कल्बे अली खान आदि गुरुजनों से गायन सीखा. सन १८८३ में स्नातक एवं १८९० में एल एल बी  की परीक्षाएं उत्तीर्ण की.  कुछ समय तक इन्होने वकालत भी की, किन्तु संगीत प्रेमी मन वकालत में अधिक दिनों तक रम न सका. 

वकालत छोड़कर वे संगीत सेवा में लग गए. शास्त्रीय संगीत की ओर संगीतज्ञों का ध्यान आकर्षित करने का श्रेय पंडित जी को है. उनके समय के संगीतज्ञ संगीत शास्त्र पर बिलकुल ध्यान नहीं देते थे, अतः उनके गायन-वादन में अनेक विषमताएं मिलती थी. अतः उनहोंने विभिन्न भागों का भ्रमण किया और संगीत के प्राचीन ग्रंथों की खोज की. यात्रा में जहाँ भी उन्हें संगीत का विद्वान मिलते, वे उन सबसे सहर्ष मिलते. उनसे धन देकर या शिष्य बनकर, अथवा सेवा कर ज्ञान प्राप्त किया. इस कार्य में उन्हें कई बार दिक्क्तें भी उठानी पड़ी. विभिन्न रागों के बहुत से गीत एकत्रित किये और उनकी स्वरलिपि भातखण्डे क्रमिक पुस्तक ६ भागों में संगृहीत कर संगीत-प्रेमियों के लिए अथाह भंडार बना दिया. उस समय किसी व्यक्ति को केवल एक गीत सिखने के लिए वर्षों तक  सेवा करनी पड़ती थी. ऐसे वक्त में पुस्तकों की श्रृंखला का उपलब्ध हो जाना विद्यार्थियों की लिए लाभप्रद सिद्ध हुआ. 

किर्यात्मक संगीत को लिपिबद्ध करने  भातखण्डे जी ने एक सरल और नयी स्वरलिपि पद्धति की    पद्धति के नाम से प्रसिद्ध है. उत्तरी हिंदुस्तान में इस पद्धति का प्रचलित है. यह पद्धति अन्य की तुलना में सरल और सुबोध हैं. 

इसके अतिरिक्त राग वर्गीकरण का एक नविन प्रकार - थाट राग वर्गीकरण को प्रचारित करने का श्रेय भी इन्हीं को जाता हैं.  उन्होंने वैज्ञानिक ढंग से समस्त रागों को १० थाटों में विभाजित किया. उनके समय में राग-रागिनी पद्धति प्रचलित थी. उन्होंने उसकी कमियों को समझते हुए थाट का प्रचार किया तथा काफी के स्थान पर बिलावल को शुद्ध थाट माना. 

जिस  समय भारत में रेडियो का प्रचार नहीं था उस समय भातखण्डे जी ने संगीत के प्रचार हेतु संगीत-सम्मलेन की कल्पना की और सं १९१६ में बड़ौदा नरेश की सहायता से प्रथम संगीत सम्मलेन सफलता पूर्वक आयोजित किया. उस समय में अखिल भारतीय संगीत अकादमी स्थापित करने का प्रस्ताव सर्व सम्मति से पास हुआ. शीघ्र हिन् उसकी स्थापना हुई, किन्तु अधिक समय तक कार्य न कर सकी. सन १९२५ तक उन्होंने पांच बृहद संगीत सम्मलेन आयोजित किये. उनके प्रयत्नों से कई संगीत-विद्यालयों की स्थापना हुई. उनमे से मुख्या हैं - मैरिस म्यूजिक कॉलेज (भातखण्डे संगीत विद्यापीठ) लखनऊ, माधव संगीत विद्यालय ग्वालियर तथा म्यूजिक कॉलेज बड़ौदा. 

उनकी प्रमुख रचनाओं हैं- हिंदुस्तानी संगीत पद्धति (क्रमिक पुस्तक मलिका ६ भागों में), भातखण्डे संगीत शास्त्र ४ भागों में, अभिनव राग मञ्जरी, लक्ष्य संगीत, स्वरमालिका आदि.

इस प्रकार भातखण्डे जी जीवन भर संगीत की सेवा करते रहे और अंत में १९ सितम्बर १९३६ को उनका स्वर्गवास हो गया. 

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