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Thursday, January 16, 2020

पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर


घराना - ग्वालियर घराना
जन्म -०८ अगस्त  १८७२
मृत्यु - २१ अगस्त १९३१
रचनाएँ -
              संगीत बाल प्रकाश,
              बीस भागों में राग प्रवेश,
              संगीत शिक्षा,
              महिला संगीत आदि।
 ग्वालियर घराने के प्रसिद्ध संगीतज्ञ स्व० पंडित विष्णु दिगंबर  पलुस्कर का जन्म सन ०८ अगस्त  १८७२, श्रवण पूर्णिमा को कुरुंदवाड़ रियासत के बेलगाँव नामक स्थान में हुआ. उनके पिता का नाम  दिगंबर गोपाल और माता का नाम गंगा देवी था. पिता एक अच्छे कीर्तनकार थे. उनहोंने पंडित जी को एक अच्छे विद्यालय में भेजना प्रारम्भ किया  दुर्भाग्यवश दीपावली के दिन आतिशबाजी से  आँखें ख़राब हो गयीं.  जिसके कारण उन्हें अध्ययन बंद करना पड़ा. आँख के बिना कोई उचित व्यवसाय न मिलने के कारण उनके पिता ने उनको संगीत  सीखाना शुरू किया। उन्हें मिरज के पंडित बाल-कृष्ण बुआ इचलकरञ्जिकार के पास संगीत-शिक्षा ग्रहण करने के  लिए भेज दिया। वहां मिरज रियासत के तत्कालीन महाराजा ने उन्हें राजाश्रय दिया और  प्रत्येक प्रकार की व्यवस्था करा दी।
 एक दुखद घटना: एक बार मिरज में एक सार्वजानिक सभा आयोजित हुई और रियासत के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को निमंत्रित किया गया।  पंडित विष्णु दिगंबर जी को राजाश्रय प्राप्त होने के कारन आमंत्रित तो किया गया, किन्तु उनके गुरु जी को नहीं बुलाया गया. इसे देखकर पंडित जी बड़े आश्चर्य में पड़े और इसका कारण जानना चाहा. पूछने पर उन्हें आश्चर्यजनक उत्तर उत्तर मिला कि वे तो गवैये हैं. उन्हें क्या आमंत्रित किया किया जाये. अपने पूज्य गुरु और गवैयों के बारे में कहे गए वाक्य उनके हृदय  घर कर गए. पंडित जी ने उसी क्षण निर्णय लिया की वे संगीतज्ञों की दयनीय दशा सुधारने एवं संगीत के प्रचार एवं प्रसार करने के प्रयास में शेष जीवन समर्पित कर देंगे.

१८९६  में राजाश्रय के सभी सुखों को छोड़कर संगीत को उच्च स्थान दिलाने के लिए पंडित जी देश भ्रमण पर निकल पड़े।  सतारा में उनका भव्य स्वागत हुआ और उनका गायन कार्यक्रम बहुत अच्छा रहा।  जिससे वहां के लोगों में संगीत और संगीतज्ञों के प्रति श्रद्धा बढ़ी।  इसके बाद उनहोंने भारत के अनेक स्थानों का भ्रमण किया और हर जगह संगीत से श्रोताओं को मुग्ध कर दिया।  उनहोंने ग्वालियर, दिल्ली, बड़ौदा, भरतपुर, वाराणसी, आगरा, अलाहाबाद, जयपुर, लाहौर आदि स्थानों पर संगीत  छवि को सुधारने हेतु उल्लेखनीय कार्य किया।

संगीत का प्रचार और प्रसार करने के लिए पंडित जी ने यह अनुभव किया की सर्वप्रथम प्रचलित गीतों से श्रृंगार रस के भद्दे शब्दों को निकाल कर भक्ति रस  के सुन्दर शब्दों को रखा गया।  दूसरे, संगीत के  विद्यालय स्थापित किये, जहाँ बालक और बालिकाओं को संगीत शिक्षण की समुचित व्यवस्था की गयी. उनहोंने बहुत से गीत के शब्दों में परिवर्तन किये और ५ मई सन  १९०१ को लाहौर में प्रथम संगीत विद्यालय - गांधर्व  महाविद्यालय की स्थापना की। संस्था को भली-भांति चलने के लिए उन्हें कभी-कभी आर्थिक संकट का सामना  पड़ा।
जो कुछ भी वो धन प्राप्त करते, वे इस कार्य में लगा देते।  जब कोई विद्यार्थी नहीं आता था, तो वे स्वयं हीं  तानपुरा निकलकर अभ्यास करते।  कुछ दिनों के बाद विद्यार्थियों की संख्या में बढ़ोत्तरी होने लगी।  वे विद्यालय के कार्यों में इतने मशगूल रहते थे कि जब उन्हीं अपने पिता की मृत्यु का समाचार मिला, तब भी वे घर नहीं जा सके।

सन १९०८ में पंडित जी ने बम्बई में गन्धर्व महाविद्यालय की एक शाखा खोली।  वहां उन्हें लाहौर की तुलना में ज्यादा सफलता मिली।  विद्यार्थयों की संख्या भी काफी बढ़ी।  लगभग १५ वर्षों तक विद्यालय का कार्य सुचारु रूप से चलता रहा, किन्तु निजी भवन हेतु विद्यालय को काफी कर्ज लेना पड़ा।  काफी समय तक कर्ज चुकाया नहीं जा सका।  जिसके कारण भवन कर्ज में चला गया और विद्यालय बंद हो गया।  तब पंडित जी का ध्यान राम-नाम में राम गया, वे गेरुआ वस्त्र धारण करने लगे और 'रघुपति राघव राजा राम। ... ' का सहारा ले लिए।  हर समय इसी में मस्त रहने लगे।  कालांतर में नासिक जाकर वहां 'रामनाम आश्रम' की स्थापना की।

वैदिक काल में प्रचलित आश्रम प्रणाली के आधार पर पलुस्कर जी  १०० शिष्यों को शिक्षा दी।  उनके अधिकांश शिष्य  उनके साथ रहते, उनके खाने-पिने, रहने तथा शिक्षा का प्रबंध वे निःशुल्क करते।  उनके शिष्यों में स्व० वि० ए० कशालकर, स्व० पंडित ओमकार नाथ ठाकुर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

संगीत को लिपि बद्ध  करने के लिए कोई लिपि प्रचलित नहीं थी, अतः उनहोंने एक स्वरलिपि पद्धति की रचना की, जो विष्णु दिगंबर स्वरलिपि पद्धति के नाम से प्रसिद्ध है।  उनहोंने लगभग ५० पुस्तके लिखी जिनमे संगीत बाल प्रकाश, बीस भागों में राग प्रवेश, संगीत शिक्षा, महिला संगीत आदि।  जनता में शीघ्र संगीत प्रचार करने के लिए कुछ समय तक 'संगीतामृत प्रवाह' नमक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी किया।  सन १९३० में वे लकवाग्रस्त हो गए, किन्तु क्षमतानुसार संगीत की सेवा करते रहे।

अंत में २१ अगस्त १९३१ को उनहोंने प्राण त्याग दिए. उनके १२ पुत्रों में ११ पुत्रों का मृत्यु बाल्यावस्था में हिन् हो गई. केवल एक पुत्र दत्तात्रय विष्णु पलुस्कर अपने जीवन के ३५ वर्षों  तक संगीत की सेवा कर सके, क्योंकि उनका भी काम हीं  उम्र में सन १९५५ की विजयादशमी को देहांत हो गया।



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